Wednesday, July 22, 2020

चीज़ों को देखने की ख़ास कलाकारी के बीच

चीज़ों को देखने की ख़ास कलाकारी के बीच


                                                                     -अरुणाभ सौरभ

वसंत सकरगाए ने लिखना बाद में शुरू किया पर देर से आए मगर दुरूस्त! अब तक उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं।एक कविता-संग्रह 'निगहबानी में फूल' वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ था।एक और कविता-संग्रह 'पखेरू जानते हैं'2019 में प्रकाशित।'पखेरु जानते हैं' संग्रह में कुल 48 कविताएँ हैं।ये अलग-अलग मिज़ाज और तुर्शी की कविताएँ हैं।अलग विताध और अलग-अलग पहचान की कविताएँ हैं।कविताओंं की दुनिया एक साधारण इंसान की संवेदनशील दुनिया है।इसमें रहकर कवि की संवेदना अपने आसपास से लेकर दुनिया की हर चीज़ से जुड़ना चाहती है।इसी जुड़ाव से कवि की यात्रा बढ़ती है।इस यात्रा में चीज़ों को देखने की एक ख़ास कलाकारी कवि विकसित करता है।इसी तरह कवियन की भीड़ में वसंत का प्रवेश बिल्कुल अलग है।वसंत की कविताएँ पढ़कर लगता है कि प्रकृति, पर्यावरण, हमारे आसपास के वातावरण और जलवायु के प्रति हमारा कवि सचेत है और उसके रक्षार्थ प्रतिबद्ध भी।
                  'गमज़दा भीड़ से दूर
                  वे ही होते हैं तब हमारे अपने  के सच्चे हमराह
                  दूर तक जाते हैं विदा करने
                  पखेरू जानते हैं
                  जातीय धर्म निभाना'
 ये कविताएँ आम आदमी का रोज़नामचा है और रोज़मर्रा के संघर्ष की अभिव्यक्ति भी।कहीं व्यवस्था की जटिलताओं से लड़ता समय की विद्रूपता से लड़ता एक आम आदमी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।कवि इक्कीसवीं सदी में कविता लिख रहा है,पर उसकी वैचारिक निर्मिति बीसवीं सदी में हो चुकी है।वैचारिक उग्रता कहीं नहीं दिखती।न कहीं कविता में कवि अपनी बात कहने के लिए आक्रमण की मुद्रा में आया है।कवि साफ़गोई और सचाई से जो समझता है,उसे दर्ज कर रहा है- अपनी कविता में।
                      भोपाल में कवि रहता है।इसलिए भोपाल शहर कई रुपों में यहाँ उपस्थित है।भोपाल की त्रासदी और भोपाल की प्राकृतिक छटा दोनों एक साथ उपस्थित है।इन कविताओं में लोहे की चमक-दमक को पहचानने की कला है।दूसरी तरफ 'चालीस पार स्त्रियों में लौटता वसंत' जैसी कविताएँ जिसमें कवि के भीतर का स्त्रीमन और स्त्रीमन में धँसे कवि को एक साथ पहचाना जा सकता है।हर अर्थ में वसंत सकरगाए साइलेंट प्रोटेस्ट के कवि हैं।बड़बोलापन, आक्रामक आत्ममुग्धता और हाहाकारी आक्रोश यहाँ नहीं दिखता है।सरल,सहज और आसान सी लगनेवाली भाषा में यह कवि कविता गढ़ता है।
                           कविताओंं के भीतर बारीकियाँ हैं। यही महीनी और बारीकियाँ कवि को अलहदा बनाती हैं।इसीलिए वसंत कविताओंं में महीनी और बारीकी के कवि हैं,जिनके पास सूत कातने की कला से कविता बुनने की कवायद है।जिनके पास दाम्पत्य की चादर में ढँका हुआ कवि मिज़ाज है जहाँ आवारा प्रेम नहीं पनप सकता।
                           संग्रह में व्यक्तिकेंद्रित कविताएँ ज़्यादा मुकम्मल बनी हैं। 'राजेश जोशी:तीन शब्द चित्र' जैसी कविता जिसमें एक कवि अपने अग्रज कवि के प्रति जो श्रृद्धा भाव रखता है उसका शब्द चित्र है।यहाँ राजेश जोशी का कवि रुप वसंत ने बिल्कुल अलग रुप में प्रस्तुत किया है।यह कविता राजेश जोशी की रोज़मर्रा और आदतों पर केंद्रित है।इससे बेहतर क्या लिखा जाता इस पर!
  'वे पहनते हैं टी-शर्ट
   गाहे-ब-गाहे कमीज़ 
   आधी  आस्तीनकी भी
    उन्हें मालूम है
    आलोचना के दाँवपेंच सभी
     वे रखते हैं अखाड़े को
     जेब में अपनी
     और साधे रहते हैं अक्सर
       एक समझदार चुप्पी
रविशंकर उपाध्याय बीएचयू में हम लोगों के बेहद आत्मीय मित्र और सीनियर रहे हैं।रविशंकर भाई का अकस्मात देहावसान हमारी पीढ़ी के लिए बहुत बड़ा आघात है।रविशंकर भाई को जब कवि अपनी कविता में उतारता है तो करुणा और शोक का विराट चित्र प्रस्तुत कर देता है।रविशंकर उपाध्याय न सिर्फ़ एक बेहतरीन कवि हैं बल्कि एक बेहद सुलझे हुए इंसान और संस्कृतिकर्मी रहे।उनके छाते से होकर गुजरते हुआ कवि दु:ख के पारावार में पहुँचता है। 

            वसंत की कविताओंं की दुनिया विविध रंगी है। जहाँ अपनी कविताओं में अपने आसपास की दुनिया से संवाद करता एक कवि है। जहाँ अपनी काव्य भाषा में कवि सामान्य धरातल से विशिष्ट धरातल पर जाने की चेष्टा करता है।जैसे संगीतकार किसी थाट में,बंदिशों में रियाज़ कर राग की पूर्णता ग्रहण करता है,उसी अर्थ में यहाँ कवि रियाज़ की मुद्रा में अर्थवत्ता तलाश रहा है।जीवन जीने की लालसा और उम्मीद को छोड़ना नहीं चाहता कवि!वह कवि जो नालकुंभियों का आर्तनाद सुन सकता है,मृगतृष्णा में उलझे जीवन का सार समझ सकता है,यादों का आस्वाद और ज़रूरत है।उस कवि की आँखों से प्रेम देखने की कोशिश है-'पखेरू जानते हैं'।वह उस नादान की प्रतिक्रिया है जो गुलों के साये में पले बहार को चीन्हता है। जनेऊ से लेकर अंडकोश तक इनकी कविताओंं में 
विषय के रुप में उपस्थित हुआ है।यह कवि बार-बार सिद्ध करता है कि वह कितना सचेत है,समर्थ.है और सजग भी।उम्मीद उसके पास है और हौसला भी-
                           'वह सुबह कब आएगी
                           आसमान में होंगे जब
                           सूरज-चाँद सितारे
                           साथ-साथ'    
                                      वसंत की कविता की सुंदरता जातीय अस्मिता से जुड़ाव के कारण हैं।उस जातीय अस्मिता में जातीयता का रंग बहुलता और बहुलार्थ तत्वों के साथ संयोजित हुआ है।इसी संयोजन में कविता में सम्प्रेषणीयता आयी है।इस जातीयता में हिन्दी-प्रदेश की क्षेत्रीय अस्मिता के रंग में रंगे हुए शब्द पँक्तियों के माध्यम से उतरते हैं।इससे संवाद की स्वभाविक प्रक्रिया निर्मित हुई है।हर युग की कविता अपने समय में और भाषा में उस युग का सर्वश्रेष्ठ चिंतन है।इस चिंतनधारा को सार्वकालिक और सार्वभौमिक बना देने की क्षमता कम कवियों के पास होती है।वसंत सकरगाए से फिर इस सर्वकालिक और सार्वभौमिक होने की उम्मीद क्यों?हाँ,इनकी कविताओंं के भीतर भाषा बहुलता और अर्थ बहुलता की संभावना पहचानने की अकुलाहट है।
                     बोध बहुलता और बहुलार्थ बोध के आधार पर कहें तो वसंत अपनी कविताओंं की निर्मिति की प्रक्रिया में इसका ख़याल रखते हैं।अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण में स्पष्ट हैं।परिष्कृत बोध और संस्कार के लिए इनकी काव्यभाषा रियाज़ कर रही है।'मजदूर दम्पत्ति हैं-सूरज और धूप' कविता की संरचना सपाट है।मगर बातें इतनी गहरी कि नया बिम्ब विधान हमारी पठनीयता को नया दृष्टिकोण देता है।लोकजीवन के शब्द भी वसंत सकरगाए के यहाँ सहजता से आते हैं।
                       वसंत सकरगाए की दुनिया में कविता आम ज़िदगी में घुलीमिली आम ज़िन्दगी की कविता है। 'निगहबानी में फूल' कविता-संग्रह से 'पखेरु जानते हैं' तक आते-आते कविता की स्वभाविक यात्रा का विकास यहाँ दिखता है।कविता के भीतर के साधारण जन की पीड़ा और उसके आसपास के वातावरण और उसमें निर्मित होती दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश है-'पखेरू जानते हैं'।

                    -अरुणाभ सौरभ-
                  (असिस्टेंट प्रोफेसर)
                क्षेत्रीय शिक्षण संस्थान,
                एनसीईआरटी, श्यामला हिल्स 
                 भोपाल-462002
किताब़- पखेरू जानते हैं(कविता संग्रह)
कवि-वसंत सकरगाए
प्रकाशक-किताब़घर प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य-दो सौ अस्सी रुपये

नताशा की कविताएँ

                            नताशा की कविताएँ 

                                                                                    -अरुणाभ सौरभ
नताशा उस सांस्कृतिक भूमि से हिंदी कविता में आती है जिसकी उर्वरा शक्ति विद्यापति से लेकर रेणु,नागार्जुन और राजकमल चौधरी और न जाने कितने लोगों ने विकसित की है । नताशा की कविताएँ उस युवा पीढी की आवाज़ है जिसके सपनेमूल्य और संवेदना को यह व्यवस्था और तंत्र निरंतर तोड रहा है। उस टूट के खिलाफ़ ये कविताएँ बचाने का आग्रह है । जीवन और जीवन की सुंदरता इन कविताओं के बीच से झलकता है जिसमें यह स्त्री कवि अपने लोगअपनी दुनिया और अपने पात्रों से नियमित संवाद करती है । जिस संवाद में उस सब कुछ को बचाने की चेष्टा है जिससे यह दुनिया इतनी सुंदर है । बचाना जीवन कोजीवन की  प्राथमिकताओं को और अपनी प्रतिबद्धता को बचाना कवि धर्म है यहाँ !
             एक तरफ लोक रस के परिपाक से ये कविताएं तैयार हुईं हैं । ये कविताएं लोकजीवन की उन छिपी हुई गहरी सम्वेदनाओं से हमें जोडती हैं जो हिंदी कविता की विरासत है । नताशा उन कवियों की परम्परा का विस्तार करती हैं जिनसे हिंदी कविता की परम्परा की स्वाभाविक निर्मिति हुई है। दूसरी तरफ शहरी मध्यवर्ग की जटिलताओं की मानसिकता से हमें सीधे जोडतीं हैं। भोगे हुए जीवन को कविताई का स्वरुप और गुणधर्म प्रदान करने की पूरी चेष्टा यहाँ दीखती है । मनुष्य और प्रकृति के बीच सार्थक अंतर्संबंध और पारिस्थितिक अनुकूलनता का विस्तार यहाँ है। कहीं-कहीं वैज्ञानिक दर्शन की क्लासिकल परिणति कविताओं में हुई  है जिसकी फैंटेसी  में हर तरह से जीवन के सौंदर्यबोध में डूब जाना सहज आकांक्षा  बन जाती है । भावों की उतप्त गहराइयों में उतरने की कोई अतिरिक्त चेष्टा नहीं है ,बल्कि जटिल से जटिलतम परिस्थितियों  में अपनी पक्षधरता तय कर लेना कवि  की प्राथमिकता है । जिसके लिए छोटी से छोटी चीज़ें,आस-पास की बनती-बिगड़ती चीज़ें कविताई का हिस्सा बन जाती है। 
         यहाँ शिमला में सांझ का चित्र हैपाट्लिपुत्र का अगम कुँआ है,अशोक राजपथ हैमोहना तट की मत्स्यगंधाएँ हैंगंगा आरती है,अनसुनी कहासुनी है,नींद हैप्रेम की गुज़ारिश हैगृहस्थ प्रेम का समूचा कोलाज है और विध्वंश और निर्माण भी । कई एकांत के सहचर मिलकर इन कविताओं में बतियाते हैं । साथ ही हर तरह के डर का प्रतिकार है यहाँ जिसमें आत्महत्या को मौन विद्रोह माना गया है । जीवन और आस्था का विरोधाभास जहाँ चट्टानों में सर धुनने सा है और खुश रहने के लिए कवि कर्म भी ।  नताशा प्रेम की भाषा रचती है जिसमें एक लडकी के प्रेम का अंतहीन सफर है आकर्षण की हद तक । इस प्रेम में देह की अनिवार्यता है वायवीय और आभासी प्रेम जैसा कुछ यहाँ नहीं दीखता।  नताशा का प्रेम एकरेखीय ना होकर बहुकोणीय है जिसमें चुम्बकत्त्व भी है और घुलनशील सांद्रण भी जिसमें हर पतझड के बाद वसंत आता है । सीने के पर्वत पर जो उँचाईया प्रेमी ने हासिल की वहीं से प्रेमिका का ढहना और निढाल होना पृथ्वी की भाँति यह स्त्री कवि देखती है ।
            हिंदी में ऐसे कम युवा कवि हैं जिनमें लोकजीवन और नागरबोध एक साथ कहकहे लगाता हो और बोध के स्तर का विस्तार इतना गहरा हो । हिंदी कविता में इनका प्रवेश कविता की भाव भूमि और रस भूमि के लिहाज से अत्यंत सुखद है । इन कविताओं को किसी एक  खांचे,खोमचे में वर्गीकृत करने के बजाय अपने समयऔर समय की बेचैनी और छटपटाहट से चीन्हने की जरूरत है । इनकी कविताओं में जितनी विशेषताएं हैं उतनी सघनता भी , मानुस की मानसिक तैयारी भी  इसलिए इनकी कविताओं में सहजता का सूत्र देखने को मिलता है उतनी ही सरलता भी  कहीं से भी कोई आयातित या ओढी हुई भावुकता उनमें नहीं दीखतीअपनी पूरी सहज ज़िंदगी और कविताई से भरपूर होकर जीने की आदि हैं- नताशा! एक ज़िम्मेदार बुद्धिजीवी की भांति नताशा अपनी कविताओं में आस-पास के जीवन के साथ सघनता के साथ जुडी नज़र आती हैं । अकारण घनुष तानने की प्रवृत्ति इनके यहाँ नहीं दीखती हैबिना ऊंचे सुर में,लफ्फाज़ी और बयानबाज़ी से मुक्त कवि की दुनिया बिल्कुल विरल है ।
           अभिव्यक्ति कौशल से भरपूर नताशा की कविताओं से गुजरना समकालीन हिन्दी कविता की धारदार दुनिया में कदम रखना है। नताशा अंत्यन्त सहजता और धैर्य के साथ रचनाकर्म कर रही हैं।कहना ना होगा कि हमारे दौर में एक सैलेंट वर्कर कवि,जिनकी कवितायें बोलती हैं कवि नहीं। एक जीवन,एक मौसम,एक राग,और कविताओं के निमित्त एक वायुमंडल के मिजाज़ को टोहना जहां जरूरी काम है। सहजता के साथ जीए हुए स्त्री जीवन का जीवनानुभव,संबंध नताशा की कविताओं में उपस्थित हुआ है ।
                  मानुस जीवन यहाँ उपस्थित है जिससे मनुष्य केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला प्राणी होगा तो वह सिर्फ़ असहाय होगा । जब वह जीवन को कुछ दे सकने वाला  मनुष्य होगा तभी जीवन की समर्थता को समझेगा। फिर यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है-उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। मुक्तिबोध की इन पंक्तियों की तरह- ''अब तलक क्या किया जीवन क्या जीया''  इन कविताओं में जीवन में जीए हुए लय-सुर-ताल हैं ,तो खेल भी ,गति हैं  तो विराम भी,उम्मीद है तो संघर्ष भी । कविताओं के अंदर कभी भावों सरलीकरण हो जाता है पर कहीं अर्थ दोष नहीं उत्पन्न होता है।  कम सुखद नहीं है की यह युवा स्त्री कवि जीवन के हर खानों पर कविता बुनना जानती है,जिसमें गिनती के बाहर भी न जाने कितनी  विखरी हुई और जानी-अनजानी दुनिया है, संवेदना है । व्यवस्थित जीवन भी यहाँ  है और पूरी चेतना में शामिल अनगढ़पन  का सौंदर्य भी । यहाँ कवितायें भावुकता की रोमानी कल्पनाओं से नही,यथार्थ की सहज चेतना से गढ़ी जाती है । इसीलिए इस यथार्थ में शिल्प का अनगढ़पन मिलना स्वाभाविक भी है और क्रिया प्रसूत भी! इन सबके केंद्र में लड़की का होने की तल्ख सच्चाईओं से कविता गढ़ने की पूरी कला नताशा के पास है। इसीलिए नताशा उन बहुत कम बचे हुए लोगों को अपनी कविता में शामिल करतीं हैंजिनके पास यथार्थ के स्तर पर जीवटता और उम्मीद के स्तर पर रोशनी की आखिरी किरण मौजूद है । बेबाक किंतु गम्भीर स्त्री कवि होने की पूरी सम्भावना को अपनी कविताओं में व्यक्त करतीं हैं-नताशा ।
             नताशा के पास कोई हाहाकारी भाषा नहीं है न कोई लाउड स्वर । साफ-सुथरी और आसान सी भाषा की कवयित्री है- नताशा! कहन में नयापन संस्कृति बोध से उत्पन्न हुए रचनात्मक ऊर्जा को आत्मसात करने से आया है। सहज बिम्बों का प्रयोग और सहज प्रतीक योजना से इन कविताओं की निर्मिति हुई है  जिनकी दुनिया आकार-प्रकार में भले छोटी हो पर उस दुनिया के प्रति ये कविताएँ साकांक्ष है। नताशा के पास युवा मन और उस युवा मन में सकारात्मक सोच और  गहरी समसामयिक पैठ है जो अपनी पैनी दृष्टि के साथ कविता में उपस्थित है। गंभीर रचनात्मक समझ और जीवन-जगत के प्रति कुछ नया करने की सृजनात्मक ललक दोनों नताशा के पास  है। जीवन की विपुलता और बहुलार्थता के साथ समकालीन सरोकरों से पूर्णतया अवगत इस कवि  की कविता एक अनूठा राग है जिसे वास्तविक स्थितियों द्वारा गाया जा रहा है । उस गान में एक साथ प्यार भी है और बगावत भी । विपरीत समय से दो-दो हाथ करने की इस रचनात्मक साहस का स्वागत अवश्य होना चाहिए !
          हो सकता है ये कवितायें आपके अंतर्मन को झकझोर नहीं सकतींआपके अंतस को चीथ नहीं सकती और आपके भीतर आग पैदा कर विद्रोह नहीं करा सकती पर एक क्षण के लिए आपको मौन कर सकती है और आपके संवेदन तंतु को अचानक तीव्रतर होने की स्थिति में ला सकती है  ! सार्थक और प्रभावशाली कविताओं की सभी विशेषताओं के साथ गढी इन कविताओं का स्वागत ।

Thursday, April 16, 2020

उजास भर देंगे पूरे आंंगन में

उजास भर देंगे पूरे आंंगन में

(ज्योति चावला की कविताएं)
                                                                                               अरुणाभ सौरभ
इस 21वीं सदी ने अपनी उपलब्धियों और सीमाओं का लगभग दो दशक पार कर लिया है।उल्लेखनीय है कि इसमे एक तरफ ऐसे युवाओं कि फौज है जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों मे काम कर उनके उत्पादों का उपभोग,प्रसार को बढ़ावा दे रहे हैं।एक तरफ सिनेमा,विज्ञापन पर बाज़ार का पूरा प्रभाव रेखांकित किया जा सकता है।दूसरी तरफ अत्यल्प लेकिन गंभीर और लीक से हटकर सोचने वाले युवा भी सक्रिय हैं जिन्होंने अपनी रचनाशीलता को आधार बनाकर इस सदी की दहलीज़ पर कदम रखा है।ऐसे युवाओं के अंदर एक चिंतनशील सक्रिय युवा मन है जो अपनी अल्प संख्याँ के बावजूद साहित्य-संस्कृति मे अपनी सक्रियता बनाए हुए है। ज्योति चावला इसी सक्रिय युवा पीढ़ी की एक बहुचर्चित स्त्री-कवि है। हमारे दौर की स्त्री कविता की भरोसेमंद आवाज़ हैं-ज्योति । इनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘माँ का जवान चेहरा’ साल 2013 में आधार प्रकाशन से आया था । हलांंकि इस किताब पर जितनी चर्चा होनी चाहिए हो नहीं पायीं । कारण जो भी रहा हो । कविताएँ पढ़ने के बाद इतना आश्वस्त करतीं हैं ।आज की हिन्दी युवा कविता की प्रमुख स्त्री कवि ज्योति चावला की कविताओं से गुजरना समकालीन हिन्दी कविता की धारदार दुनिया में कदम रखना है।ज्योति अंत्यन्त सहजता और धैर्य के साथ रचनाकर्म कर रही हैं।कहना ना होगा कि हमारे दौर में एक सैलेंट वर्कर कवि,जिनकी कविताएं बोलती हैं। एक जीवन,एक मौसम,एक राग,और कविताओं के निमित्त एक वायुमंडल के मिजाज़ को टोहना जहां जरूरी काम है। सहजता के साथ जीए हुए स्त्री जीवन का जीवनानुभव,संबंध ज्योति की कविताओं में उपस्थित है। वह भी पूरे नागर जीवन की स्त्रियॉं के सामाजिक यथार्थ के साथ।
इन कविताओं में जीवन में जीए हुए लय ,सुर ताल हैं ,तो खेल भी ,गति हैं तो विराम भी,उम्मीद है तो संघर्ष भी..कम सुखद नहीं है की यह युवा स्त्री कवि जीवन के हर खानों पर कविता बुनना जानती है,जिसमें गिनती के बाहर भी न जाने कितनी विखरी हुई और जानी-अनजानी दुनिया है, संवेदना है.व्यवस्थित जीवन की जगह यहाँ अनगढ़पन का सौंदर्य पूरी चेतना में शामिल है.इसीलिए ज्योति उन बहुत कम बचे हुए लोगों को अपनी कविता में शामिल करतीं हैं, जिनके पास यथार्थ के स्तर पर जीवटता और उम्मीद के स्तर पर रोशनी की आखिरी किरण तक जीवन जीने वाले लोगों की स्त्री कवि होने की पूरी सम्भावना को अपनी कविताओं में व्यक्त करतीं हैं..
....’’और आज जब मैं एक बच्ची की माँ हूँ
तो मुझे वे बीते दिन बेहद याद आते हैं
मेरी बच्ची के हिस्से में न तो घर की छत आई
न ही कोई मुंंडेर जिसके पीछे काकी रहती थी’’ (उसके सपने कहीं बेरंग तो नहीं’ शीर्षक कविता से)
संग्रह की पहली कविता है-‘माँ और आशा पारेख’ जिसमें एक स्त्री की जीए हुए जीवन का समूचा कोलाज है।जरा इन पंक्तियों पर करिए-
‘’उनकी आँखों के कोर पैने हो जाते हैं
ठीक आशा पारेख की बड़ी और कजरारी आँखों की तरह
और चेहरे पर उभर आती है वही लाज’’
यहाँ एक विशेष स्त्री का साधारण स्त्री से तुलना नहीं बल्कि एक जीवन का दूसरे जीवन के साथ तारतम्य दिखाया गया है।
इसीलिए भोगे हुए जीवन को कविताई का स्वरुप और गुणधर्म प्रदान करने की पूरी चेष्टा यहाँ दीखती है . मनुष्य और प्रकृति के बीच सार्थक अंतर्संबंध और पारिस्थितिक अनुकूलनता का विस्तार यहाँ है।कहीं-कहीं वैज्ञानिक दर्शन की क्लासिकल परिणति कविताओं में हुई है जिसकी फैंटेसी में हर तरह से जीवन के सौंदर्यबोध में डूब जाना सहज आकांक्षा बन जाती है..भावों की उतप्त गहराइयों में उतरने की कोई अतिरिक्त चेष्टा नहीं है ,बल्कि जटिल से जटिलतम परिस्थितियों में अपनी पक्षधरता तय कर लेना कवि की प्राथमिकता है.जिसके लिए छोटी से छोटी चीज़ें,आस-पास की बनती-बिगड़ती चीज़ें कविताई का हिस्सा बन जाती है।
‘’आज चवन्नी के बंद हो जाने की खबर से
टूट गया है बहुत कुछ
ऐसे जैसे एक साथ बहुत सी चवाननियाँ
झंझनाकर नीचे गिर गयी हों......(‘चवन्नी के बंद होने पर’ कविता से)
। यहाँ कविताएं भावुकता की रोमानी कल्पनाओं से नही,यथार्थ की सहज चेतना से गढ़ी जाती है । इसीलिए इस यथार्थ में शिल्प का अनगढ़पन मिलना स्वाभाविक भी है और क्रिया प्रसूत भी । इन सबके केंद्र में लड़की होने की तल्ख सच्चाईओं से कविता गढ़ने की पूरी कला ज्योति के पास है।उदाहरण के लिए संग्रह में कई कविताएं लड़की के या स्त्री जीवन के शीर्षक के इर्द-गिर्द घूमती है,जैसे-‘लड़की’,’प्यार में डूबी लड़की’,’माँ का जवान चेहरा’,कच्ची उम्र की लड़कियां’,’फिर भाग गयी लड़की’,समझदारों की दुनिया में माएं मूर्ख होती हैं’,छूना चाहती हैं आसमान’, सिनेतारिका’, राधिका के लिए’,’चूड़ियाँ’,’वह टिफिन वाली’,’तुम्हारी आँखें हमें सुकून देती हैं इरोम’,’पन्ना धाय तुम कैसी माँ थी’।इन सभी कविताओं में अलग-अलग स्त्री जीवन का कोना बारीकी से अभिव्यक्त हुआ है।पर हर तरफ के जीवन में सवालों का अंबार है।ये सवाल हमारे दौर की मौजू सच्चाई है जिससे ज्योति पूरी तरह वाकीफ़ है।
संग्रह की शीर्षक कविता ‘माँ का जवान चेहरा’ कई तरह के सवालों से एक साथ संवाद करती हुई कविता है,इस कविता में एक बच्ची का सरल-सहज प्रश्न और जिज्ञासा किस प्रकार जीवन की कठिन सच्चाई से जुड़ जाती है वह देखने लायक है।पर इनके सवाल उस सहज जिज्ञासा के उस स्वरूप तक हमें ले जातीं हैं जहां से जिम्मेदारियाँ ही मनुष्य को असमय वृद्ध कर देतीं हैं।कविता कहीं भी झटका ना देकर बहुत सहज ढंग से चुपचाप अपनी बात कह देती है।एक बच्ची जो कविता लिख सकती है आज युवा है,उसे अपने बचपन से जुड़ी सारी स्मृतियाँ एक-एक कर याद आती हैं पर माँ के जवान चेहरे की याद नहीं आती।क्योकि उसने माँ को कभी जवान देखा ही नहीं।
‘’माँ मुझे दिखीं हैं हमेशा वैसे ही
जैसे होती है माँ
सफ़ेद बाल और धुंधली आँखें
बच्चों की चिंता में डूबी ......’’
संग्रह की अधिकांश कविताओं में इसी तरह का सैलेंट-प्रोटेस्ट दीखता है,हालांकि इसे हमारे दौर की कविताओं की मूल प्रवित्तियाँ कहना एक तरह का सरलीकरण होगा।मौन विद्रोह को द्वंद और तनाव के साथ साध लेना और बिना आक्रामकता के अपनी बात को बहुत ही सहज ढंग से कह देना ज्योति की अपनी खासियत है।जिसको गढ़ने मे ये हमेशा सक्षम हुईं हैं।बिना लाउड हुए भी किस तरह से तनाव के विषय को बुना जा सकता है ये ज्योति बेहतर समझती है।उस समझ के धरातल से कविता का वितान खींचने में काफी सफल भी हुईं हैं।
कुल मिलाकर ज्योति युवापीढ़ी की उस सकारात्मक सोच और गहरी समसामयिक पैठ को अपनी पैनी दृष्टि के साथ कविता में लातीं हैं जिनमें गंभीर रचनात्मकता की पूरी समझ है,जीवन-जगत के प्रति जिनमे कुछ नया करने की ललक है.जीवन की ऐसी बहुलार्थता और समकालीन सरोकरों से पूर्णतया अवगत इस कवि की कविता एक अनूठा राग है जिसे स्थितियों द्वारा गाया जा रहा है.विपरीत समय से दो-दो हाथ करने की इस रचनात्मक हिम्मत का स्वागत अवश्य होना चाहिए.
कविताएं यहाँ आपके अंतर्मन को झकझोर नहीं सकतीं पर एक क्षण के लिए आपको मौन कर सकती है और आप अचानक संवेदन तंतु के तीव्रतर होने की स्थिति में आ सकते हैं ऐसी नायाब संवेदनात्मकता की धनी है हमारी ज्योति चावला......
संग्रह-माँ का जवान चेहरा-ज्योति चावला,आधार प्रकाशन पंचकूला हरियाणा.संस्कारण 2013 मूल्य-200/-रुपए

मृत्यो: स मृत्युं गच्छति च इह नानैव पश्यति

मृत्यो: स मृत्युं गच्छति च इह नानैव पश्यति 
                                                         
                                                                     -अरुणाभ सौरभ 

कुँवर नारायण आज हमारे बीच नहीं हैं । उनकी कविताएं हैं जो उन्हें अमरत्व प्रदान करती हैं । कुँवर जी हिन्दी कविता में विरल कवि हैं । विरल मिथकीय प्रयोग,बहुलतावादी दृष्टिइतिहास की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रयोग में कुँवर नारायण इकलौते और अनूठे कवि हैं ।
उनकी सृजन यात्रा पचास वर्षों से अधिक समय का हैजिनमें उन्होंने हिन्दी कविता को एक नई दिशा दी है। सारी कृतियाँ अनूठी है और क्लासिक भी । आत्मजयी उनकी ऐसी ही क्लासिक कृति है जिसमें उन्होने पुराकथा को आधार लेकर एक बेहतरीन कृति की सर्जना की है । 



''अत्र उसन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।''

कुँवर नारायण आधुनिक और समकालीन हिंदी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि हैं। इनकी कृति आत्मजयी को प्रकाशित हुए पचास साल हो चुके हैं। इन पचास सालों में कुँवर जी ने कई महत्त्वपूर्ण कृतियों से भारतीय भाषा का मान बढ़ाया है । आत्मजयी काव्य इनकी सर्जना का एक बेहतरीन उदाहरण है। जीवन और मृत्यु के अंतर्संबंधों की बुनियाद पर इस कविता की रचना हुई है। इसकी भूमिका में कुँवर जी लिखते हैं-
''नचिकेता की चिन्ता भी अमर जीवन की चिन्ता है। ‘अमर जीवन’ से तात्पर्य उन अमर जीवन-मूल्यों से है जो व्यक्ति-जगत् का अतिक्रमण करके सार्वकालिक और सार्वजनिक बन जाते हैं। नचिकेता इस असाधारण खोज के परिणामों के लिए तैयार है। वह अपने आपको इस धोखे में नहीं रखता कि सत्य से उसे सामान्य अर्थों में सुख ही मिलेगालेकिन उसके बिना उसे किसी भी अर्थ में सन्तोष मिल सकेगाइस बारे में उसे घातक सन्देह है। यम से-साक्षात् मृत्यु तक से-उसका हठ एक दृढ़ जिज्ञासु का हठ है जिसे कोई भी सांसारिक वरदान डिगा नहीं सकता।''
'आत्मजयीमें मृत्यु से साक्षात को कठोपनिषद की कथा को अपनी व्याख्या के साथ कुँवर जी ने प्रस्तुत किया है ।  नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीतिअर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँको शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता हैजहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।
        ‘आत्मजयी’ ने ना सिर्फ़ हिन्दी अपितु भारतीय भाषाओं में अपनी एक खास उपस्थिति दर्ज़ की है और सर्वत्र प्रशंसित हुआ है। इसका मूल कथासूत्र कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रसंग पर आधारित है।  एक आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों से जोड़ा है। आज के मनुष्य को बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक बेहतर उदाहरण आत्मजयी है । जीवन के साथ-साथ उसकी अनश्वरताजीने की उत्कट लालसा और मृत्यु की उदात्त भारतीय प्रेरणा इसके मूल में है । एक ऐसे सत्य से साक्षात कराती कविता है यह जिसमें मरणधर्मा व्यक्ति जीवन से बड़ाया चिरस्थायी हो। यही मनुष्य को सांत्वना दे सकता है कि मर्त्य होते हुए भी वह किसी अमर अर्थ में जी सकता है। 
पिछली पूजाओं के ये फूटे मंगल-घट।
किसी धर्म-ग्रन्थ के
पृष्ठ-प्रकरण-शीर्षक-
सब अलग-अलग।
वक्ता चढ़ावे के लालच में
बाँच रहे शास्त्र-वचन,ऊँघ रहे श्रोतागण !...
ओ मस्तक विराट,इतना अभिमान रहे-
भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक न दूँ मान..
इससे अच्छा
चुपचाप अर्पित हो जा सकूँ
दिगन्त प्रतीक्षाओं को....
                   मनुष्य जीवन से केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला प्राणी होगा तो वह सिर्फ़ असहाय होगा । जब वह जीवन को कुछ दे सकने वाला  मनुष्य होगा तभी जीवन की समर्थता को समझेगा। फिर यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है-उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। मुक्तिबोध की इन पंक्तियों की तरह- ''अब तलक क्या किया जीवन क्या जीया''। ‘आत्मजयी’ मूलतः मनुष्य की रचनात्मक सामर्थ्य में आस्था की पुनःप्राप्ति की कहानी है। यह कविता अपने साथ कुछ मूलवर्ती आस्थाओं को साथ लेकर चलती है ।  आज का मनुष्य केवल लघुमनाव नहीं है । वह जीवन की जटिलताओं और अर्थों से संवाद करता है। उसकी नियति जटिल है,परिणति भी जिसको समझते हुए इस कविता में जटिल नियति से गहरा काव्यात्मक आत्मसाक्षात्कार है।
''मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य-
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं...इन्हें
अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत,चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
      
समय पर....सूर्य पर...''
कुँवर जी ने भूमिका में लिखा है-
''‘
आत्मजयी’ में ली गयी समस्या नयी नहीं-उतनी ही पुरानी है (या फिर उतनी ही नयी) जितना जीवन और मृत्यु सम्बन्धी मनुष्य का अनुभव। इस अनुभव को पौराणिक सन्दर्भ में रखते समय यह चिन्ता बराबर रही कि कहीं हिन्दी की रूढ़ आध्यात्मिक शब्दावली अनुभव की सचाई पर इस तरह न हावी हो जाये कि ‘आत्मजयी’ को एक आधुनिक कृति के रूप में पहचानना ही कठिन हो। उपनिषद् यमनचिकेताआत्मामृत्युब्रह्म...किसी भी नये कवि के लिए इन प्राचीन शब्दों की अश्वत्थ जड़ेंप्रेरणा शायद कमचेतावनी अधिक होनी चाहिए। फिर भी मैंने यदि इस बीहड़ वन में प्रवेश करने का दुस्साहस कियातो उसका एक कारण यह भी था कि मुझे ये शब्द वास्तव में उतने बीहड़ नहीं लगे जितने उन्हें ठीक से न समझने वाले व्याख्याकारों ने बना रखा है। उन्हें आधुनिक व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं के सन्दर्भ में भी जाँचा जा सकता है। ऐसी आशा ने भी इस ओर प्रेरित किया''
            आत्मजयी के मूल में आधुनिक मनुष्य का द्वन्द्वग्रस्त मन है ।विचारशील मनुष्य कहाँ तक जाकर सोच सकता हैइसकी पूरी परिणति कविता का ऊत्स है ।  कुंवर नारायण अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के माध्यम से वर्तमान को देखने के लिए जाने जाते है। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसे किसी खाँचों में नहीं बाँटकर देख सकते। मिथकों का सर्वाधिक सार्थक उपयोग आधुनिक हिन्दी कविता में कुँवर जी ही करते हैं । पर हाँ मिथकों के उपयोग केआर समय भी उनकी दृष्टि सर्वथा आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी की रहती है। आधुनिक हिन्दी कविता में इतनी वस्तु व्यंजकता भी अकेले कुँवर जी के पास है । इतिहास और पुराख्यान को कथातत्त्वों से बुनकर उन्होने सधी हुई कविता की है। बहुलार्थ तत्त्वों की प्रधानता इनकी रचनात्मक विशेषता है। एक खास बात कुँवर जी के पास है कि पुराख्यान और मिथकों कि कथावस्तु को उठाते समय वो सिर्फ़ भारतीय कथाख्यानों तक सीमीत ना रहकर ग्रीक कीलैटिन की ज़मीन से अपनी कथा को जोड़ते हैं। यही एक खास वजह है जिससे उनकी कविता कहीं से भी भटकती नहीं है। और अपनी अनथक यात्रा पूरी कर लेती हैजिसकी स्वाभाविक माँग कविता से थी । आत्मजयी की भूमिका में ही कुँवर जी लिखते हैं -
''यूनानी पुरा कथाओं की ही तरह भारतीय पुराकथाएँ भी आरम्भ में रहस्यवादी ढंग की नहीं थींमनुष्य और प्रकृति के बीच बड़े ही घनिष्ठ सम्बन्धों का रोचक और जीवन्त कथा—रूप थीं। लेकिन आज हिन्दू धर्म  और हिन्दू पौराणिक अतीत को अलग कर सकना लगभग असम्भव हैजबकि ग्रीक पुराकथाएँ ईसाई धर्म और यूरोपीय रहस्यवाद से लगभग अछूती रहीं। भारतीय पुराकथाओं पर परिवर्ती धार्मिक रंग इतना गहरा है कि उसे विशुद्ध मानवीय महत्त्व दे सकना  कठिन लगता है। ग्रीक पुराकथाओं में आदि-मानव की अन्तः प्रकृति का अधिक अरंजित रूप सुरक्षित मिलता है। इसीलिए कामू का ‘सिसीफ़स’ या जेम्स जॉयस का ‘यूलिसिस’ पुराकथात्मक चरित्र होते हुए भी धार्मिक चरित्र नहीं लगते—उन्हें ‘साहस’ जैसे नितान्त मानवीय गुण का प्रतीक मानकर चलने में उस प्रकार का धार्मिक व्यवधान बीच में नहीं आताजैसा अवतारवाद के कारण भारतीय देवी-देवताओं के साथ आता है।'' 
                 आत्मजयी में रहस्यवाद के धुंधलकों को पाटकर शास्वत मूल्यों की तलाश की गयी है। यह एक विराट कविता है । विराटता को प्रमाणित करने हेतु इसमें कई अर्थ संदर्भ हैं। पुराख्यान होकर भी कुँवर जी की दृष्टि कहीं से भी धार्मिक नहीं लगती । धार्मिकता और रहस्यों के आवरण से इस कविता को मुक्त रखा गया है। दार्शनिक विवेचन की चरम परिणति तक कविता जाती है । दार्शनिक सूत्रों और प्रमेयों के बीच कई जगह पर कविता अबूझ भी हो जाती है । कविता की असफलता भी इसकी दार्शनिक विवेचना है। जीवन-मृत्यु और आज के मनुष्यों की स्वाभाविकता को बनाए रखने के संतुलन के बीच आत्मजयी कविता कई जगह पर असंतुलित भी हुई है। कई जगहों पर टूटती हैबिखरती है । फिर भी संभलकर कवि पुरा कथा को फिर से कविता की तरफ खींचता है । कुँवर जी के बहुधा अधीत मानस होने के कारण ही ऐसा संभव हुआ । 
 ओ मस्तक विराट,
अभी नहीं मुकुट और अलंकार।
अभी नहीं तिलक और राज्यभार।
तेजस्वी चिन्तित ललाट। दो मुझको
सदियों तपस्याओं में जी सकने की क्षमता।
पाऊँ कदाचित् वह इष्ट कभी
कोई अमरत्व जिसे
सम्मानित करते मानवता सम्मानित हो।
                            इतिहास और दार्शनिकता के स्थान पर कुँवर जी की मूल चिंता इस कविता में नचिकेता के मानवीय स्वरूप को स्थापित करना है। जिसे उन्होने इसकी भूमिका में स्पष्ट कर दिया है --''
नचिकेता का प्रसंग इस दृष्टि से मुझे विशेष उपयुक्त लगा कि वह मुख्यतः धार्मिक क्षेत्र का न होकर दार्शनिक क्षेत्र का ही रहाजहाँ वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए अधिक गुंजाइश है। दूसरेनचिकेता के बाद में जो थोड़ा-बहुत साहित्य लिखा भी गया है उसकी ऐसी साश्वत परम्परा नहीं जो उसे फिर कोई नया साहित्यिक रूप देने में बाधक हो—न अब तक इस आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को ही इस प्रकार लिया गया है कि वह आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों को बेहतर अभिव्यक्ति दे सके। इसीलिए मैंने ‘आत्मजयी’ के धार्मिक या दाशर्निक पक्ष की विशेष चिन्ता न करके उन मानवीय अनुभवों पर अधिक दबाव डाला है जिनसे आज का मनुष्य भी गुज़र रहा हैऔर जिनका नचिकेता मुझे एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक लगा।''
                               नचिकेता,यम और पिता वाजश्रवा ये तीन पात्र ही इस विराट कविता मुख्य पात्र हैं । जब कुँवर जी वाजश्रवा का चित्र खींचते हैं तो स्पष्ट हो जाता है -
"पितातुम भविष्य के अधिकारी नहींक्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे,न अपने ‘हित’ को ही अपने सुख के आगे।
तुम वर्तमान को संज्ञा देते होपर महत्त्व नहीं।
तुम्हारे पास जो हैउसे ही बार-बार पाते हो और सिद्ध नहीं कर पाते कि उसने तुम्हें सन्तुष्ट किया।
इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह फिर पानेवाला तृप्त नहीं होता,तुम्हारे पास जो हैउससे और अधिक चाहता है,विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो।
पितातुम भविष्य के अधिकारी नहींक्योंकि तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मारकर तुम्हारे संचयों को तुम्हारे ही मार्ग में ही लूट लेता हैऔर तुम खाली हाथ लौट आते हो।''

1965 में जब आत्मजयी छपकर आई तो हिन्दी आलोचना ने इस कृति के साथ स्वाभाविक न्याय नहीं किया । इस तरह से इसपर अस्तित्त्ववाद के मुहर लग गए कि फिर प्रगतिशील हिन्दी आलोचना को इधर देखने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई । और फिर एक चूक हिन्दी आलोचना से हो गयी जिसकी भरपाई अब संभव हो सकती है । अपने हित के आगे,सुखों के आगे नचिकेता अपने  विवश पिता को देखता है । यम से मिलने जाना और वहाँ से वरदान  लेना अद्भुत घटना है । मृत्यु को भारतीय वाङ्ग्मय और धर्मशास्त्रों में परम सत्य माना है। कठोपनिषद का एक श्लोक है-
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥
मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा(मृत्यु के पश्चात) रहता है और कोई कहते हैं कि नहीं रहताआपसे उपदेश पाकर मैं इसे जान लूंयह वरों मे तीसरा वर है |
 कुँवर नारायण ने हिन्दी कविता के पाठकों में  नई तरह की सोच-समझ विकसित की। नचिकेता के पुराख्यान पर आधारित आत्मजयी को आधार बनाकर एक बार फिर उन्होने नयी कृति की सर्जना की। वह कृति  कुँवर नारायण की 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस की विशेषता यह है कि 'अमूर्तको एक अत्यधिक सूक्ष्मता के साथ संवेदनात्मक शब्दावली के साथ नए उत्साह और जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवर नारायण ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया हैवहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहानेकृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। आत्मजयी मृत्यु से मृत्यु को जीतने की वैचारिक कवायद है। इसकी भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता है । पुरा कथा होने के कारण संसकृत शब्दों की बहुलता है। कविता का शिल्प इतना सुघड़ है कि क्षण-क्षण में कविता पाठकों को बांध कर रखती है । आत्मजयी हिन्दी के विरल की अनूठी कृति है । आधुनिक हिन्दी कविता की विशिष्टतम उपलब्धि है- आत्मजयी ! 

Monday, April 13, 2020

भारतीय संस्कृति और बहुभाषिकता की समझ


         भारतीय संस्कृति और बहुभाषिकता की समझ  
डॉ. अरुणाभ सौरभ
सहायक प्राध्यापक  DESSH,
एनसीईआरटी,क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान भोपाल,
mobile :9871969360,
सांस्कृतिक बहुलता हमारी विरासत है, विविध भाषा हमारी पहचान ।  भारतीयता के संदर्भ में बहुलता एक व्यापक विशेषण है । वही बहुलता जो संस्कृति की बोधगम्य प्रणाली को सघन और संश्लिष्ट ना बनाकर उदारस्वरूपा बनाती है । भारतीय संस्कृति का निर्माण कई-कई लोकभाषाओं के संघटन से हुआ है तो शास्त्रीय भाषाओं के सम्मिश्रण से । इसमें क्षेत्रीयता और जातीय अस्मिता के विविध रंग समाहित होकर इसे बहुभाषी सम्प्रेषण से रंगीन करते हैं । भाषा बोध निर्माण का कार्य करती है । बोध की बहुलता या बोधि स्तर में बहुलता से राष्ट्रीयता का रंग और आस्वाद सुंदर,सापेक्ष और प्रभावी बनता है ।   
उद्देश्य
•       भारत और भारतीयता के मूल में बहुभाषी चेतना को समझने के अर्थ में
•       संवाद करने के लिए एक भाषा से दूसरे भाषा के बीच आवाजाही करने के अर्थ में
•       बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता हमारी विरासत के रूप में
•       बहुभाषिकता को शिक्षा में एक समाधान के रूप में देखने के अर्थ में । 
यहां आधुनिक भारत के दो महान विभुतियों को संदर्भित करना स्वाभाविक है‌‌‌ ‌-
सारी तालीम विद्यार्थियो की क्षेत्रीय भाषा (मातृभाषा) द्वारा दी जानी चाहिए
                                                                             -नयी तालीम(महात्मा गांधी)
शिक्षा में मातृभाषा शिशु के लिए मां के दूध के समान है जबतक मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जातातबतक शिक्षा का सार्वभौमीकरण संभव नहीं ! 
                                                                            -रवींद्रनाथ टैगोर 

भारतीय संस्कृति बहुलतावादी है। इस बहुलतावादी संस्कृति एक एक बड़ी विशेषता इसकी विविध भाषा है। विविध भाषाओं के बीच से जो तत्त्व प्रकाशित होता है – वही तत्त्व बहुभाषिकता है । बहुभाषिकता भारतीय संस्कृति का प्राण-तत्त्व है। मेल-जोल सद्भाव आदि से रहना हमारी मूल प्रेरणा है। बहुलार्थ तत्त्व हमारी सांस्कृतिक विरासत है। हमारा देश विविधताओं का देश है । बहुभाषिकता भारतीयता को बचाने में एक कारगर हथियार सिद्ध होगा। शिक्षा में बहुभाषिक पद्धति का निर्माण कर शिक्षा के सार्वभौमिक लक्ष्य तक पहुँचने में मदद करेगा । एक-एक बच्चे की मातृभाषा से प्यार करते हुए राष्ट्रीय चेतना के साथ जोडना ही बहुभाषिकता की ओर ले जाता है । बहुभाषिकता का शिक्षा में प्रयोग प्राथमिक स्तर से होना चाहिये । सामान्यतया  बहुभाषी का अर्थ ऐसे व्यक्ति से है जो दो या अधिक भाषाओं का प्रयोग करता है। विश्व में बहुभाषी लोगों की संख्या एकभाषियों की तुलना में बहुत अधिक है। विद्वानों का मत है कि द्विभाषिकता किसी भी व्यक्ति के ज्ञान एवं व्यक्तित्व के विकास के लिये बहुत उपयोगी है। समझ को बनाने में भाषा अस्त्र है और बहुभाषिकता शस्त्र   हम मूलतः बहुभाषी हैं। भारत जैसे बहुभाषी देश में तो हमारा किसी एक भाषा के सहारे काम चल ही नहीं सकता। हमें अपनी बात बाकी लोगों तक पहुंचाने के लिए और उनके साथ संवाद करने के लिए एक भाषा से दूसरे भाषा के बीच आवाजाही करनी ही पड़ती है। जैसे हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का मिश्रित रूप है हिंदुस्तानी जुबान। । समाज यदि भाषा की निर्मिति में निर्णायक होता है तो भाषा भी समाज की निर्मिति में उतना ही सहायक होता है । स्वस्थ एवं सभ्य नागरिक का निर्माण भाषा के बगैर असम्भव है । भाषा व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण ही नहीं करती अपितु उसे संस्कारवान भी बनाती है। व्यक्ति की समग्र प्रगति में निर्णायक तत्त्व भाषा ही होती है । भारत का समाज बहुभाषी है तो यहाँ व्यक्तित्व का निर्माण भी बहुभाषी ही होगा ।  बहुत से बच्चों की घर की भाषा (होम लैंग्वेज) स्कूल की भाषा से इतर होती है। बहुभाषिकता घर और स्कूल की भाषा में आयी दूरी को पाटता है । भारत और भारतीयता के  मूल में  छिपी हुई बहुभाषी चेतना को अर्थ देता है ।  सस्कृति का भाषा के साथ अभिन्न सम्बंध हैअगर भाषा संरक्षित रहेगी तो संस्कृति अपने आप बची रहेगी ! भाषा संस्कृति के निर्माण में सहायक होती हैभाषा द्वारा हम अपनी संस्कृति व्यक्त करते हैंभाषा स्वयं भी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है…….संस्कृति सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश पर विजय पाने का एक साधन है  उसमें मनुष्य के भाव,विचारसंस्कार,सम्वेदनाएं सभी शामिल हैं । भाषा भी ऐसी ही संस्कृति है .’’1
इस संदर्भ में ब्रिटिश कौंसिल का दस्तावेज कहता है-
‘’ India is a country with linguistic diversity that befits a continent. There is in place a three language formula for school education. However, in practice teachers are often faced with immense difficulty dealing with the challenges this diversity poses in everyday classroom situations. How do teachers deal with a multilingual class that does not match with his or her own language(s)? How does one transition students who speak a tribal or a highly localised language to the provincial language and then on to Hindi, the national language? And where does English sit within all of this, when is it right to introduce this and how? 2

बहुभाषिकता से जुडने का अर्थ भारत की आत्मा से जुडना है । हमारी राष्ट्रीय चेतना बहुभाषी है । दूसरे अर्थ में बहुभाषिकता हमारी राष्ट्रीय चेतना और मानस की निर्मिति में सहायक है । आज़ादी के बाद संविधान ही हमारा सबसे बडा ग्रंथ है , संविधान में बहुभाषिकता का पूरा खयाल किया गया है । जिसकी आठवीं अनुसूची भाषा पर ही है । आठ्वीं अनुसूची में 22 भाषाएं शामिल की गयीं हैं । त्रिभाषा सूत्र संविधान में नहीं है 1956 में अखिल भारतीय शिक्षा परिषद ने इसे मूल रूप में संस्तुति के रूप में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में रखा था । 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने इसका अनुमोदन किया । बच्चे प्रारम्भ से ही बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त करे । त्रिभाषा फर्मूला को उसके मूल भाव के साथ  लागू किये जाने की जरूरत है। ताकि  बहुभाषी देश में बहुभाषी सम्वाद को बढावा मिले ।
प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक रमाकांत अग्निहोत्री लिखते हैं-
‘’होबार्ट ‘द टयूटर,’ जो कि अँग्रेज़ी सिखाने के लिए तैयार की गई पहली प्रवेशिका थीके बारे में बताते हैं। इसका प्रकाशन 1779 ई. में बंगाल के सिरमपुर में हुआ था। यह मुख्यत: सहज एवं मनोरंजक दैनिक कार्य-कलापों से सम्बन्धित द्विभाषी वार्तालाप (संवाद) पर आधारित थाजिसमें पुराने तथा अलकृंत शब्दों की जगह साधारण बोलचाल वाले शब्दों का इस्तेमाल किया गया था। बहुत-से कारक थे जिन्होंने मिलकर विविधता को दरकिनार करते हुए एकभाषिता को स्वीकृत मानक बना दियाऔर ‘एकदम-सही के प्रति अस्वाभाविक लगाव’ सब तरफ चलन में आ गया। देशी भाषाओं को ‘वर्नेक्यूलर,’ जो केवल घरों एवं गौण परिवेश में बोलचाल के लिए ही उपयुक्त हैंकहकर उनको हेय करार देना ब्रिटिश सरकार के हित में था। वे पारम्परिक एवं सांस्कृतिक तथ्य व जानकारियाँजो इन भाषाओं द्वारा व्यक्त की जाती थींउन्हें भी गलत ठहरा दिया जाता था। उदाहरण के लिएभारत के परिप्रेक्ष्य मेंमैकॉलेके विचार थे कि अरबी एवं संस्कृत जैसी सांस्कृतिक भाषाओं को दी जाने वाली प्रशासनिक एवं वित्तीय सुविधाएँ समाप्त कर दी जाएँ तथा अँग्रेज़ी साहित्य एवं इतिहास को अनिवार्य विषय बनाने के साथ ही शिक्षा का माध्यम अँग्रेज़ी कर दिया जाए। मैकॉले का विचार था कि ऐसा करना ‘प्रशासन’ एवं ‘भारतीय जनता’ दोनों के हित में होगा। परन्तुवास्तव में वह इस माध्यम से भारतीय जनता के बीच एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहता थाजो लहू एवं रंग से तो भारतीय हो परन्तुपसन्दविचारबुद्धि एवं नैतिकता से ब्रिटिश हो। उसका मानना था कि ‘वर्नेक्यूलर’ भाषाओं का हित भी इन अँगरेज़ीदाँ भारतीयों द्वारा अच्छे से निभाया जा सकेगा।‘’3
                                   शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में निरंतर नवाचार और नए तकनीकों का उपयोग हो रहा है। तेजी से बदलती दुनिया में हम तकनीक कोनवाचार को दरकिनार नहीं कर सकते। तकनीक के सकारात्मक उपयोग की ओर ले जाना हमारा कर्त्तव्य होना चाहिये. बहुभाषिकता को एक शैक्षणिक तकनीक की तरह उपयोग करने की जरूरत है। भाषा सीखना किसी एक तकनीकएक नियम और एक शर्त से संभव नहीं है  भाषा शिक्षण निरंतर चलनेवाली गतिमान प्रक्रिया हैजो देश,काल,पात्र और परिस्थिति के अनुरूप ही सम्भव है। भाषा सीखने का सम्बंध अंतत: सुननाबोलनापढना और लिखना से है। विद्यार्थियों की भाषाई दक्षता के विकास हेतु भी उनकी मातृभाषा का सम्मान करते हुए भी एकरेखीय और एकभाषीय शिक्षण घातक हैइसकी जगह पर बहुभाषिक शिक्षण पद्धति की जरुरत है । इसीलिए अब राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 हो या राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 की ड्राफ्ट बहुभाषिकता का महत्त्व हर जगह रेखांकित किया गया है
एन सी एफ 2005 में लिखा है -
''बहुभाषिकता जो बच्चों की अस्मिता का निर्माण करती है और जो भारत के भाषा परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण है उसका संसाधन के रूप में उपयोग कक्षा की कार्य नीति का हिस्सा बनाना तथा उससे लक्ष्य के रूप में रखना रचनात्मक भाषा शिक्षक का कार्य है।  यह केवल उपलब्ध संसाधन का बेहतर इस्तेमाल नहीं है बल्कि इसे यह भी सुनिश्चित हो सकता है कि बच्चा स्वीकार्य और संरक्षित महसूस करे और भाषिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को पीछे ना छोड़ा जाए।‘’4
बहुभाषिकता से सबसे बडा लाभ यह होगा कि छोटी-छोटी भाषाएं, आदिवासी भाषाएं संरक्षित हो जाएगी और आनेवाली पीढी की अपनी भाषा संरक्षित हो जाएगी ।
'' मातृभाषा में शिक्षा से कक्षा में पढ़ाई को समृद्ध करने में सुविधा होगीशिक्षार्थियों की अधिकाधिक प्रतिभागिता होगी और बेहतर परिणाम निकलेंगे। इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं। सभी में मातृभाषा में शिक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जाए ताकि शिक्षार्थी वह माध्यम अपनाने में संकोच ना करें जिसमें वह आसानी से समझ सके।‘’5
भारतीय भाषाओं का आधार पत्र फोकस समूह के दस्तावेज़ के सार-संक्षेप में स्पष्ट है-
‘’बच्चे को मातृभाषा में ही शिक्षा प्रदान की जाए और शिक्षकों को कक्षा में बहुभाषी वातारण का महत्तम उपयोग कर सकने की क्षमता प्रदान की जाए . हाल ही में अध्ययन शोधों से बहुभाषिक भाषा-क्षमता व शैक्षिक सम्प्राप्ति में भी सकारात्मक संबंध का पता चला है . साथ ही यह भी पता चला है कि बहुभाषिकता ज्यादा संज्ञानात्मक लचीलेपन एवं सामजिक सहिष्णुता को जन्म देती है .’’6
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के ड्राफ्ट में भी इसपर प्रकाश दिया गया है-
‘’बच्चों में भाषा को सीखने की बेहद क्षमता होती हैयह भी सही है कि हमें अंग्रेज़ी की इस सत्ता को रोककर अभिजात वर्ग और बांकी के समाज में जो खाई बन गयी उसे पाटने की जरूरत है लेकिन इसके अतिरिक्त हमें भारतीय भाषाओं के शिक्षण के साथ-साथ अंग्रेज़ी का भी सभी सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में बढिया क्वालिटी का शिक्षण करना चाहिये . ‘’ 7

                   शिक्षा का प्रमुख काम ही समझ का निर्माण करना है। समझ बनीविचार विकसित हुए और आप ज्ञान की मुख्यधारा में सीधे प्रवेश कर गए। समझना और बूझना यानि समझ-बूझ ही शिक्षा से प्राप्त मूल चीज़ है । समझ को बनाने की प्रक्रिया ज्ञानी होने के लिए आवश्यक है। जानने के लिए समझना जरूरी है । अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जो हम  हम बाहरी दुनिया को जानने और समझने की जो कोशिश करते हैं। उसी कोशिश का नाम- संज्ञान है । संज्ञान का  सरलीकृत अर्थ है जानना । संज्ञान को महत्व देने वाले मनोवैज्ञानिकों ने संज्ञानवादी समूह बनाया था । मनोविज्ञान में संज्ञान का बड़ा महत्व है। संज्ञानात्मक शब्द का अंग्रेजी रूपांतरण है 'कॉगनेटिव'। जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार सीखना उस समय ज्यादा अर्थपूर्ण होता है जब वह विद्यार्थी की रुचि और जिज्ञासा के अनुरूप हो। जीन पियाजे मानते हैं संज्ञानात्मक विकास अनुकरण की बजाय खोज पर आधारित है। इसमें व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपनी समझ का निर्माण करता है।
रमाकांत अग्निहोत्री लिखते हैं-
''आज के परिदृश्य मेंबहुभाषावाद ऐसी स्वाभाविक घटना मानी जाने लगी है जिसका सकारात्मक सम्बन्ध विवेकपूर्ण आचरण (संज्ञाना-त्मक व्यवहार) एवं विद्यालयों में प्राप्त सफलता से है। फिर भीइसमें छिपी अपार सम्भावनाओं का कक्षाओं में पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो पाया है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाषा शोध बहुभाषावाद के महत्व को उजागर करती है। फिर भीकक्षाओं मेंखासकर भाषा की कक्षाओं में एकभाषावाद का प्रचलन अधिक देखने को मिलता है। बच्चे जो भाषा घर एवं अपने परिवेश में इस्तेमाल करते हैंवे विद्यालयों में उपेक्षित हैं एवं उनका प्रयोग विद्यालयों में हेय दृष्टि से देखा जाता है।''8
                           बहुभाषावाद आज एक  चुनौती है। यद्यपि मातृभाषा से लोगों का स्वाभाविक लगाव होता है। यही वजह रही कि बांग्लादेश और पाकिस्तान भाषा के नाम पर बंट गए। जबकि दोनों जगह एक ही धर्म के लोग बहुसंख्यक थे । इसके विपरीत  भारत में अनेक धर्म और भाषाएं हैं और हम संयुक्त हैं। यहाँ छोटी से छोटी भाषाओं का सम्मान आवश्यक है।  विश्व में बहुभाषी विद्यार्थी अपवाद नहीं बल्कि आदर्श हैं। एक से अधिक भाषा ज्ञान के संज्ञानात्मक और व्यावहारिक लाभ के कई शोध और प्रमाण हैं। एक से अधिक भाषा का ज्ञान अध्यापन और शिक्षण का अद्भुत साधन है। ध्यान रहे हम प्रथमत: और अंतत: भाषा ही सीखते हैं . प्रत्येक शिक्षक चाहे किसी भी विषय के हों उन्हें अपने सभी विद्यार्थियों के भाषा ज्ञान और कौशल की प्रशंसाप्रचार और उसे निखारने के अवसरों की तलाश करनी चाहिए। भाषा शिक्षक होने के नातेऐसा करना हमारी  पहली जवाबदेही है और नैतिकता भी ।


बहुभाषिकता के महत्त्व

•       भाषा की कक्षाओं में एकभाषावाद के प्रचलन को तोडने के अर्थ में
•       बच्चे के  घर एवं अपने परिवेश एवं विद्यालय की भाषा में सामंजस्य स्थापित करने में
•       अर्थपूर्ण और सृजनात्मक शिक्षा सामाजिक संघर्ष की कुंजी के रूप में 
•        भाषा सभी प्रकार की शैक्षणिक क्रियाओं का केन्द्र-बिन्दु के रूप में
•       अधिकतम ज्ञानभाषा के माध्यम से ही अर्जित करने के अर्थ में
•       भाषा संरचनाएँ सामाजिक विविधताओं एवं भाषा गहनता से विचारों की संरचना तथा उनकी अभिव्यक्ति की सीमाएँ तय करने के अर्थ में


दसवीं कक्षा तक के बच्चों को भाषाई समझ इतनी होनी चाहिए कि पढना,लिखना,बोलना,सुनना और सृजन में किसी तरह की कोई कठिनाई न हो
· समझ को विकसित करने हेतु भाषा सबसे बडा अस्त्र है . 
· भाषा और समझ का गहरा सम्बंध है . 
· शिक्षा में समझ की जरुरत को विकसित करने की नीतियां एक रचनात्मक सोच का परिणाम है .
· सम्वेदनात्मक विकास हेतु समझ के विकास की जरुरत है. 
· समझ विकसित होने से रचनात्मक्ता का विकास होगा 
· सीखने के प्रतिफल का वास्तविक लक्ष्य पूरा हो सकेगा 
· अधिगम प्रक्रिया पर सकारात्मक और संरचनात्मक और गहरा असर पड सकता है . 

भाषाई समझ के विस्तार हेतु बहुभाषिक शिक्षण पद्धति की आवश्यकता है । इससे भाषाई कौशल का विकास तो होगा ही साथ ही साथ शिक्षार्थी की अपनी भाषा का आदर और सम्मान भी बढ़ जाएगा । शिक्षा के मूल लक्ष्य तक पहुँचने में  भी आसानी होगी । कक्षा में बहुभाषिकता का उपयोग भाषा-शिक्षण के लिए संसाधन तथा लक्ष्यदोनों तौर पर किया जा सकता है. लेकिन इसका सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में मातृभाषा के उपयोग पर भी पडता है । वह शिक्षकजो बहुभाषावाद को समाज में एक संसाधन के रूप में देखता हैवह नि:सन्देह रूप सेभाषा की कक्षा मेंविभिन्न भाषाओं में छिपी सृजनात्मकता की सम्भावनाओं के दोहन का अधिकतम प्रयास करेगा। लक्षित भाषा के सन्दर्भ मेंशुद्धता के साथ धाराप्रवाह वक्तव्य एवं सामाजिक व्यवहार में विशिष्ट कुशलता की प्राप्ति के प्रयास भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य नहीं रहेंगे।

                     एक बहुभाषी कक्षा में शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि उनमें  बच्चों के द्वारा बोली जाने वाली मातृभाषा के बारे में समझ और सम्मान की भावना का विकास करे,  वे बच्चों द्वारा बोली जाने वाली उनकी अपनी भाषा को कक्षा में समानुभूति के साथ सीखने-सिखाने के लिए स्थान देंअपनी कक्षा की विविधता को समझते हुए बच्चों के ज्ञान के विकास के लिए सहज और रचनात्मक वातावरण बनाने  का प्रयास करें।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के पृ सं 42 में गम्भीरतापूर्वक इसपर विचार किया गया है’’-
1.       भाषा शिक्षण बहुभाषिक होना चाहिए . बहुभाषिक कक्षा को एक संसाधन के तौर पर प्रयुक्त करना चाहिये .
2.       बच्चों की घरेलू भाषा(एं)स्कूल में शिक्षण का माध्यम होनी चहिए
3.       बच्चे प्रारम्भ से ही बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त करें त्रिभाषा फर्मूला को उसके मूलभाव के साथ लागू किए जाने की जरूरत है ताकि वह बहुभाषी संवाद के माहौल को बढावा मिले
4.       गैर हिंदी भाषी राज्यों में बच्चे हिंदी सीखे तथा हिंदी प्रदेशों के बच्चे वह भाषा सीखे जो उस क्षेत्र में नहीं बोली जाती
5.       आधुनिकतम भारतीय भाषा के रूप में संस्कृत का अध्ययन भी शुरु किया जाना चाहिए
6.       बाद के स्तरों पर शास्त्रीय और विदेशी भाषाओं से परिचय करवाया जाना चाहिए  9
बच्चों की भाषा को कक्षा में सम्मान मिलेबच्चे बेहिचक किसी से अपनी बात कह सकेअपनी बात को अपनी भाषा में कहने के समान अवसर का सहज वातावरण प्रदान निर्मित हो । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी बच्चा जब पहला दिन अपने विद्यालय में प्रवेश करता है तो वह अपने साथ अपनी भाषिक परम्परा और संस्कार लेकर आता है । उसी परंपरा और संस्कार का नाम- मातृभाषा है ।
              भारतीय भाषाओं का आधार पत्र फोकस समूह एन सी एफ-2005 में इस बात को लेकर स्पष्ट रुप से लिखा गया है-
'' मातृभाषा में शिक्षा से कक्षा में पढ़ाई को समृद्ध करने में सुविधा होगीशिक्षार्थियों की अधिकाधिक प्रतिभागिता होगी और बेहतर परिणाम निकलेंगे। इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं। सभी में मातृभाषा में शिक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जाए ताकि शिक्षार्थी वह माध्यम अपनाने में संकोच ना करें जिसमें वह आसानी से समझ सके।''10
 एक भाषा का विकास दूसरी भाषा के विकास में भी सहायक होता है
एन.सी.एफ. 2005 में बहुभाषिकता
•       एक सृजनशील भाषा-शिक्षक द्वारा बहुभाषावाद का उपयोग एक संसाधन के रूप में  
•       कक्षा की शैक्षणिक योजना बनाने और लक्ष्य की प्राप्‍ति के लिए
•       एक सहज उपलब्ध साधन का श्रेष्ठ उपयोग करना 
•        प्रत्येक बच्चा अपने को कक्षा में सुरक्षित और स्वीकृत महसूस करे
•       भाषाई पृष्ठभूमि के कारण कोई भी पिछड़ने न पाए।
•       बच्चे प्रारम्भ से ही बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त करे
•        त्रिभाषा फर्मूला को उसके मूल भाव के साथ  लागू किये जाने की जरूरत
•       बहुभाषी देश में बहुभाषी सम्वाद को बढावा मिले
•       मातृभाषा को माध्यम भाषा बनाने पर बल

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के ड्राफ्ट में बहुभाषिकता


•       शिक्षा में बहुभाषिकता को प्राथमिकता के साथ शामिल करने और ऐसे भाषा शिक्षकों की उपलब्धता को महत्व.
•       बच्चों के घर की भाषा समझते हों। यह समस्या राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राज्यों में दिखाई देना
•       पहली से पाँचवी तक जहाँ तक संभव हो मातृभाषा का इस्तेमाल शिक्षण के माध्यम के रूप में
•       घर और स्कूल की भाषा अलग-अलग हैवहां दो भाषाओं के इस्तेमाल का सुझाव
•       बहुभाषिकता को समस्या के बजाय समाधान के रूप में देखना । 11

समझ को विकसित करने करने के लिए आज शिक्षण दोनों रूपों में संभव है -पहला मातृभाषा के रूप में  शिक्षणइसमें  संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ बालकों में मातृभाषा का विकास हो सके।  वैसे मातृभाषा में शिक्षा के लिए कोई अलग तकनीक तो होती नहीं अपितु बालकों के बौद्धिक विकासचिंतन और बोधन का आधार मातृभाषा बन सकती है । दूसरा माध्यम भाषा के रूप में जिसमें बच्चे ज्ञान के विविध क्षेत्रों को अपनी भाषा में समझ सके । अगर मातृभाषा में शिक्षण का माध्यम आरम्भिक स्तर तक बनाया जाता है तो उससे सीखने की गुणवत्ता भी बढेगी और सीखने की गति भी तेज होगी । हमारी बहुभाषिक अवधारणा में मदद मिल सकती है और बहुभाषिकता को आवश्यक आधार भी मिल सकता है । मातृभाषा के रूप में शिक्षण आवश्यक है ताकि इससे  बच्चों  को अपनी भाषा को लेकर कोई हीनताबोध ना हों और उसे समझने में आसानी हों ।
 समझ को विकसित करने के तरीके   
‘’समझ और भाषा का रिश्ता कुछ ऐसा होता है जैसे हवा और उसकी तरंगों काहमारी समझ अपनी भाषा में ही बनती है भाषा के बिना समझ की परिकल्पना असम्भव है पर स्कूलों में भाषा को एक ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है हमें इस दिशा में अभी काम करना होगा और यह विश्वास दिलाना होगा कि भाषा मानवीय समझ का एकमात्र आवश्यक आधार है हम वर्त्तमान में क्या कर रहे हैं ? इसके बारे में भी हमें भाषा ही सचेत करती है यह वर्त्तमान से अतीत और भविष्य में आवाजाही करने का एकमात्र जरूरी उपकरण है  ”12

कहानियों को सुनकर और वे जो भाषा सुनते हैंउसे दोहराकर। ऐसा करके वे भाषा के खण्डों– अभिव्यक्तिवाक्यांश और वाक्य को पढ़ते हैं और आत्मसात करते हैं।
बारी-बारी से हर अक्षर और शब्द को पढ़कर इससे वे अच्छी तरह जान जाते हैं कि शब्द कैसे बनते हैं और हर शब्द का मतलब क्या होता है।
पृष्ठ पर लिखे शब्दों को पढ़ने और समझने में उनकी मदद करने के लिए चित्रों का उपयोग करें। 
वास्तव में ज्यादातर छात्र इन सभी रणनीतियों के मिश्रण का उपयोग करते हैं।
मूक अभिनय के द्वारा प्रदर्शित संदेश को समझकर अभ्यास किया जाए . 
पढ़ना प्रारम्भ करने के लिए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण एन.सी.एफ. 2005 से
•       कक्षा में संकेतचिह्नोंचार्टों और कार्यों की व्यवस्था सम्बन्धी सूचनाओं आदि को प्रदर्शित करके मुद्रित-सामग्री से भरपूर वातावरण प्रदान किए जाने की जरूरत
•       अक्षरों तथा ध्वनियों के पारस्परिक सम्बन्ध को सिखाने के अलावा लिखित चिन्हों को अक्षरों की तरह पहचानने की प्रक्रिया को प्रोत्साहन
•       कक्षा की पढ़ाई में ऐसी कल्पनाशील सामग्री का समावेश किए जाने की जरूरत 
•       किसी योग्य वाचक के द्वारा उपयुक्त भाव-भंगिमाओं सहित नाटकीय ढंग से पढ़ी जाए।
•       बच्चों से उनके अनुभवों को लिखवाना और फिर लिखे गए विवरण को पढ़वाना
•       कहानियोंकविताओं आदि का वाचन
•       पहली पीढ़ी के स्कूल जाने वालों को स्वयं अपनी पाठ्यसामग्री निर्मित करनेअपनी पसन्द से चुनी गई पाठ्यसामग्री को कक्षा में शामिल करने के अवसर देना 13

मातृभाषा हिन्दी शिक्षण पृष्ठ संख्या एनसीईआरटी के 1998 के संस्करण में लिखा गया है कि- 
'' विश्व के सभी शिक्षा शास्त्री तथा भाषा वैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मातृभाषा ही हो सकती है। उनकी मान्यता है कि जितनी सरलता और स्वाभाविकता से मातृभाषा के माध्यम से बालक शिक्षा प्राप्त करता है किसी अन्य भाषा माध्यम से नहीं।''14

· विचार-बिनिमय में माध्यम की भाषा के रूप में समझ विकसित करने की आवश्यकता है ।
·  प्रशिक्षण में भाषाई समझ के रूप को विकसित करने की आवश्यकता है। 
· भाषाओं में समता के आधार पर समझ की  एकात्मता विकसित करने की आवश्यकता है । 
· सर्जनात्मक संवाद और लोक ज्ञान परंपरा के विकास में निकटता के कारण हिंदी भाषियों को सरलता और सुगमता से कई-कई भाषाओं में प्रवेश कराने हेतु बहुभाषी शिक्षण आवश्यक है। 
·  माध्यमिक स्तर तक अनिवार्य पढ़ाई मातृभाषा के रूप में और माध्यम भाषा के रूप में कक्षा 1 से 8 तक के रूप में पढ़ाई की व्यवस्था से भाषा समझ के विकास में बल मिल सकता है। 
· बुनियादी शिक्षा के रूप में प्राथमिक स्तर से माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर तक मातृभाषा की पढ़ाई से न सिर्फ़ भाषाई विकास होगा अपितु समझ का विकास से एक भाषाई राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा । 


गतिविधि 
बूझो तो जाने 
जगह और वस्तुओं के नाम लिए बिना उन्हें कैसे समझ कर बताया जा सकता है जैसे- बस स्टॉपपान की दूकानगली,सडक इनको बिना बोले समझाइए .

बच्चे की समझ और भाषा 
· समझ के आधार के रूप में भाषा 
· भाषा और सामाजिक समता
· बच्चे की अस्मिता का सवाल 15

राष्ट्रीय मूल्यांकन सर्वे की परीक्षा में पठन और अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को करने में कमजोर पाए गए हैं . इसीलिए कम से कम पढना,लिखना,बोलना,सुनना और सृजन में छात्र-छात्राओं को  किसी तरह की कोई कठिनाई न हो . लगातार अध्यापकों को इन सभी बिंदुओं पर गम्भीरता से सोचने की जरुरत है . 

गतिविधि 2
 शिक्षक द्वारा पाठ्यपुस्तक की कोई कहानी का सारांश छात्रों को सुनाई जाए उसके बाद विद्यार्थियों से कहानी का संदेश समझकर बताने को कहा जाए . 

समझ बढाने के लिए अपने छात्रों की पठन रणनीतियों का अवलोकन करना
· अनुमान के आधार पर 
· याददाश्त आधार पर 
· पुर्वानुमान लगाने के लिए चित्रों का उपयोग कर
· शब्द के पहले पूर्वानुमान लगाकर 
· हर शब्द को अलग-अलग पढ्कर 
· पाठ के हिस्से को पढ्कर
· प्रत्येक शब्द की ओर संकेत 
· वाक्यों के नीचे उंगली घुमाकर 
अन्य के साथ आप छोटे समूहों में काम करने में सक्षम हो सकते हैं। अलग अलग रणनीतियों का उपयोग करने वाले पाठकों की जोड़ियाँ बनाने पर विचार करेंताकि आप देख सकें कि क्या वे एक दूसरे से सीख सकते हैं। पूरे स्कूली वर्ष के दौरान आपके छोटे छात्रों की पठन प्रगति के रिकॉर्ड विकसित करने के लिए सारणी की प्रतियों का उपयोग करें। साथ ही बहुभाषी समझ बनाने हेतु अलग-अलग बच्चों की मातृभाषा को कक्षा में बोलकर एक दूसरे से सीखने हेतु प्रेरित करना चाहिए ।

                    भारतीय भाषाओं पर छाए  घटाटोप और अंधकार काल में भाषाओं की एकात्मता पर विचार आवश्यक है ।इसी एकात्मता से बहुभाषिकता का मूल लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है । बहुभाषी शिक्षण व्यवस्था को और व्यापक एवं प्रभावी बनाने की जरूरत है । हलांकि इसका संदर्भ आरम्भिक स्तर पर शिक्षण देने से संदर्भित है, साथ ही उन भाषाओं के संरक्षण से है जिसके बोलने वालों की संख्या बहुत कम है खासकर आदिवासी भाषा आदि । परंतु इसकी सैद्धातिकी को विकसित अर्थ लेकर भाषाओं के बीच आंतरिक सूत्र की पड़ताल आवश्यक है।  भारतीय सभ्यता के पास अपनी भाषाओं की ताकत है जो उसे विशिष्ट बनाती है। भाषिक संरचना पर विचार करके भाषा के प्रति उदार दृष्टि रखकर भाषाओं की ताकत को समझने में आसानी होगी । जिस प्रकार भाषा का भूगोल होता है उस भूगोल की पड़ताल जरूरी है।  भाषाई संस्कृति के विकास को समझना जरूरी है। आज भाषा की जड़ता तोड़कर एकात्मता का सूत्र ग्रहण कर आगे बढ़ने की जरूरत है अन्यथा सारी भाषाओं के साथ हिंदी का भी नुकसान ही होगा । हिंदी का प्रचार-प्रसार छोटी-छोटी भाषाओं को समाप्त कर नहीं संभव है।  हिंदी को देश की संपर्क की सबसे बड़ी भाषा होने का गौरव कोई नहीं छीन सकता,छीन पाना असंभव है।  इसलिए हिंदी को सहजता के साथ आगे बढ़ने दीजिए। सभी भाषाओं के बीच हिंदी संवाद का व्यापक बन सकती है भाषा को आगे बढ़ाने की जरूरत है। 21 वीं सदी में सबसे बड़ा खतरा भाषाओं पर है। 



संदर्भ 
1 रामविलास शर्मा ‘भाषा और समाज’ पृ-406,ग्यारहवां संस्करण,2011 राजकमल प्रकाशनदिल्ली


4 एन सी एफ 2005 के पृष्ठ संख्या 41,एनसीईआरटी नई दिल्ली
भारतीय भाषाओं का आधार पत्र फोकस समूहएन सी एफ-2005 एनसीईआरटी नई दिल्ली
6 भारतीय भाषाओं का आधार पत्र फोकस समूह के दस्तावेज़ के सार-संक्षेप
7 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के ड्राफ्ट पृ 110
9 एन सी एफ 2005 के पृष्ठ संख्या 41,एनसीईआरटी नई दिल्ली
10 भारतीय भाषाओं का आधार पत्र ,फोकस समूहएन सी एफ-2005 एनसीईआरटी नई दिल्ली
12 समझ का माध्यमपृ-10, अक्तूबर 2010 एनसीईआरटी नई दिल्ली
13 मातृभाषा हिन्दी शिक्षण पृष्ठ संख्या 4 एनसीईआरटी के 1998 के संस्करण
14 एन सी एफ 2005 एनसीईआरटी नई दिल्ली
15 समझ का माध्यमअक्तूबर 2010 एनसीईआर्टटी 







       


चीज़ों को देखने की ख़ास कलाकारी के बीच

चीज़ों को देखने की ख़ास कलाकारी के बीच                                                                       -अरुणाभ सौरभ वसंत सकरगाए ने लिखना...